कोरोना एक ऐसा खतरनाक वायरस है जिसकी चपेट में पूरी दुनिया है।
40 लाख से ज्यादा लोग इसकी चपेट में है और 2,80000 से ज्यादा लोगों की मौत इस महामारी की वजह से हो चुकी हैं दुनिया भर के डॉक्टर और वैज्ञानिक इस वायरस की काट खोजने में जुटे हुए हैं लेकिन अभी सफलता का कोई नामोनिशान नहीं है हालांकि ऐसा नहीं है कि दुनिया के सामने महामारी पहली बार आई है दुनिया के सभी देशों ने पहले भी कई माहमारी देखी है और उन पर काबू पाया है।
इतिहासकारों की मानें तो आमतौर पर महामारी खत्म होने के 2 तरीके हैं पहला तरीका है इलाज का या फिर वेक्सीन का जिसके जरिए संक्रमण और मौतों के आंकड़ों को रोका जा सकता है दूसरा तरीका उस डर को खत्म करना जो महामारी की वजह से लोगों के दिमाग में होता है जॉन हापकिंस यूनिवर्सिटी के मेडिकल साइंस इतिहासकार डॉक्टर जेमी ग्रीन का मानना है कि फिलहाल जो लोग पूछ रहे हैं कि यह सब खत्म कब खत्म होगा तो वह इस बीमारी के इलाज की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि वह इस बात को जानना चाहते हैं कि लोगों के दिमाग की दहशत कब खत्म होगी।
दूसरे शब्दों में कहें तो यह बीमारी खत्म नहीं होगी बल्कि लोग इसके साथ ही जीना सीख लेंगे महामारी की वजह से लोगों के दिमाग में जो हलचल है वह शांत हो जाएगी वह अपने काम में जुट जाएंगे और बीमारी यू ही खत्म हो जाएगी भारत जैसा देश भी कुछ-कुछ इसी राह पर चल रहा है पहले संक्रमण से बचाने के लिए लॉकडाउन दो बार बढ़ाया गया और अब इस लॉकडाउन को धीरे-धीरे खत्म करने की तैयारी हो रही है ताकि जीवन फिर से पटरी पर लौट सके खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह भी कहा था कि बीमारी खत्म नहीं होने वाली है इसी के साथ जीना सीखना होगा।
लेकिन क्या यह सच है कि बीमारी कभी खत्म नहीं होगी तो इसके लिए हमें इतिहास की तरफ जाना होगा साल 2014 में एक वायरस आया था इबोला जिसने दक्षिण अफ्रीका में काफी तबाही मचाई थी और पश्चिमी अफ्रीका में करीब 11000 लोग मारे गए थे आईलैंड जैसे देश में इसकी वजह से एक भी मौत नहीं हुई लेकिन वहां भी खौफ जरूर था।
लेकिन वहां के अस्पताल के डॉक्टर और नर्स खुद की सुरक्षा के लिए डरे हुए थे अस्पताल में से एक आदमी इमरजेंसी रूम में दाखिल हुआ उसे देखकर डॉक्टर और नर्स अस्पताल छोड़कर भागने लगे थे जांच हुई तो पता चला कि उसे कैंसर था और अंतिम स्टेज में था और फिर उसकी मौत हो गई इसके 3 दिन के बाद ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि अब इबोला दुनिया खत्म हो गई है।
वही प्लेग को लेकर ना कोई डॉक्टर आश्वस्त है और ना ही कई इतिहासकार की प्लेग कैसे खत्म हुआ हालांकि तर्क यह दिया जाता है कि ठंडे मौसम की वजह से बैक्टीरिया वाली मक्खियां मर गई और बीमारी नियंत्रित हो गई हालांकि डॉक्टरों का यह भी मानना है कि चूहों में भी बदलाव हुआ 19वीं शताब्दी तक सिर्फ काले चूहे नहीं भूरे चूहे से भी प्लेग फैलने लगा था और यह चूहे इंसानों से दूर रहते थे एक रिसर्च यह भी कहती है कि बैक्टीरिया कमजोर पड़ गया जिसकी वजह से मौतें रुक गई इसके अलावा गांव के गांव जलाने की वजह से भी महामारी को रोका जा सका लेकिन हकीकत यह है कि प्लेग कभी खत्म नहीं हुआ यह अब भी है लेकिन अब इस मामले के सामने कमा आते हैं और इसकी दहशत न के बराबर है।
वही फ्लू की बात करेंतो आज कोरोना कि काल में पूरी दुनिया सोशल डिस्टेंसिंग, क्वारंटाइन और आइसोलेशन की बात कर रही है फ्लू के जमाने में भी यही हुआ करता था पहले विश्वयुद्ध के दौरान फ्लू की वजह से पूरी दुनिया में 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी पूरी दुनिया को प्रभावित करने के बाद फ्लू कमजोर पड़ा लेकिन खत्म नहीं हुआ बाद में फ्लू कमजोर हो गया जिसमें जानलेवा क्षमता कम हो गई वहीं प्रथम विश्वयुद्ध भी खत्म हो गया था और यही वजह है कि उस दौर के फ्लूको लोग विश्व युद्ध की विभीषिका की में आमतौर पर भूल जाते हैं।
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