प्राकृतिक रूप से केला पेड़ पर ही पकना प्रारंभ हो जाता है।
जब गुच्छे की सबसे प्रारंभ में 1-2 केले पीले होने लगते हैं तब पूरे गुच्छे को पेड़ से काटकर पेड़ से अलग करके टांग के रख दिया जाता है ऐसा करने रोज उस गुच्छे से 5 से 7 केले पकने लगते हैं और 6 से 7 दिन में पूरा गुच्छा पक जाता है यह तो प्राकृतिक तरीका है जो घरो में केले उगाते है वो ये ही तरीका अपनाते हैं।
आजकल व्यवसाय केला बागान में लाखों पेड़ लगे होते हैं अधिकांश पेड़ टिश्यू कल्चर तकनीक से विकसित किए जाते हैं मकान में जैसे ही कुछ एक विशिष्ट आकार तक पहुंचते हैं उन्हें पेड़ से काटकर अलग कर दिया जाता है अभी वह पूरी तरह कच्चा वह हरा होता है दलालों की सीधी ट्रक खेतो में पहुंचते हैं पूरा ट्रक लोड करके सीधे मंडी में पहुंचा दिया जाता है वहाँ उनकी नीलामी की जाती है जहां विभिन्न थोक विक्रेता उस नीलामी की बोली लगाकर क्विंटल के भाव से खरीदे लेते है।
अभी वे उन केलो की भट्टी लगाते हैं अथार्थ बड़े से कमरे में सभी गुच्छो को एक के ऊपर एक कतारों में कमरे में जमा दिया जाता है पूरा कमरा भर जाने पर उसमे एथिलीन गैस की आवश्यकता मात्रा छोड़कर कमरा बंद कर दिया जाता है एथिलीन पौधों में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली गैस है जो कि पौधों में शारीरिक परिवर्तन भी करती है तथा जब इसकी मात्रा 0.1 से 1.0 पीपीएम हो जाती है तो यह फलों के पकने की क्रिया को प्रोत्साहित करता है बाहर से प्रयुक्त एथिलीन भी यही करती है।
निश्चित समय पर कमरा खोल कर लगभग पके केलो को निकालकर थोक विक्रेता रिटेलर्स को किलो के भाव से बेच देता है और रिटेलर उन्हें दर्जन के भाव में हमें बेचते हैं।
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